गोपाल कृष्ण गोखले भारत के एक महान नेता थे। उन्होंने अपना पूरा जीवन देश की उन्नति के लिए अर्पित कर दिया था। बचपन से ही गोपाल कृष्ण होनहार और मेधावी थे। ईमानदारी तो उनकी रग-रग में समाई हुई थी। छुटपन से गोपाल कृष्ण गोखले को गोपाल नाम से पुकारते थे।
जब बालक गोपाल स्कूल में पढ़ता था वह अपना कार्य सदैव पूरा रखता था। एक दिन अध्यापक ने सभी बालकों को गणित का एक प्रश्न दिया। बच्चों से वह प्रश्न हल नहीं हो सका। छुट्टी की घंटी बज गई। अध्यापक ने वह प्रश्न घर से करके लाने को कहा।
अगले दिन कक्षा में अध्यापक ने सभी से अपनी-अपनी कॉपी दिखाने को कहा। कुछ बच्चे तो प्रश्न करके ही नहीं लाए, कुछ ने हल किए तो उत्तर सही नहीं थे। अंत में गोपाल की बारी आई। उसका उत्तर बिलकुल ठीक था। इस पर अध्यापक बहुत खुश हुए और गोपाल की पीठ थपथपाई। गोपाल को इस बात की तनिक भी खुशी न हुई। वरन् उसके चेहरे पर उदासी छा गई। वह बहुत गंभीर हो गया। उसके चेहरे पर खुशी न देखकर अध्यापक को बड़ा आश्चर्य हुआ।
उन्होंने गोपाल के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, “गोपाल तुम्हारा उत्तर तो बिलकुल ठीक है। तो तुम उदास क्यों हो? हम तुम्हें इसके लिए पुरस्कार देंगे।" बालक गोपाल रोते हुए कहने लगा, “गुरु जी मैं पुरस्कार के योग्य नहीं हूँ। क्योंकि यह प्रश्न तो किसी अन्य ने हल करा है। इसको हल करने के लिए मैंने अपने मित्र की सहायता ली थी।" मैं इस प्रशंसा के योग्य नहीं हूँ।" गोपाल की ईमानदारी की बात जानकर गुरुजी को उस पर बहुत गर्व हुआ।
वे गोपाल की ईमानदारी को देखकर बहुत प्रभावित हुए। इसकी प्रशंसा करते हुए बोले, "बेटा! तुम एक सच्चे और गुणी विद्यार्थी हो । भविष्य में तुम एक दिन अवश्य महान व्यक्ति बनोगे और देश का नाम रोशन करोगे।" गुरुजी का आशीर्वाद पाकर, गोपाल अब खुश था।
वह बालक बड़ा होकर एक महान नेता बना । महात्मा गांधी उन्हें अपना गुरु मानते थे। वे उनका बहुत आदर करते थे। बालक अपने सदगुणों और विचारों से ही बड़ा बनते हैं।
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