**रानी दुर्गावती की कहानी**
रानी दुर्गावती गोंडवाना की वीरांगना थीं, जिन्होंने मुगलों के खिलाफ वीरतापूर्वक संघर्ष किया और अपने राज्य की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी।
प्रारंभिक जीवन :
रानी दुर्गावती का जन्म 5 अक्टूबर 1524 को उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले में महोबा के राजपूत शासक कीर्तिसिंह चंदेल के घर हुआ था। उनका विवाह गोंड राजा दलपत शाह से हुआ, जो गढ़मंडला (वर्तमान मध्य प्रदेश) के शासक थे।
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शासन और वीरता :
पति दलपत शाह की मृत्यु के बाद, रानी ने अपने बेटे वीर नारायण के साथ शासन की बागडोर संभाली। उन्होंने कुशलता से प्रशासन चलाया और गोंडवाना को एक समृद्ध राज्य बनाया। लेकिन उनकी शक्ति और समृद्धि मुगल शासक अकबर को पसंद नहीं आई, और 1564 में अकबर के सेनापति आसफ खान ने गोंडवाना पर आक्रमण कर दिया।
रानी दुर्गावती के द्वारा लड़े गए प्रमुख युद्ध
रानी दुर्गावती एक साहसी और वीर योद्धा थीं, जिन्होंने अपने राज्य गोंडवाना की रक्षा के लिए कई युद्ध लड़े। उनका सबसे प्रसिद्ध युद्ध मुगलों के खिलाफ हुआ, जिसमें उन्होंने वीरगति प्राप्त की।
1. मुगलों के खिलाफ युद्ध (1564) :
मुगल सम्राट अकबर ने अपने सेनापति आसफ खान को गोंडवाना पर आक्रमण करने के लिए भेजा। आसफ खान ने रानी दुर्गावती के राज्य को कमजोर समझकर हमला किया, लेकिन रानी ने अद्भुत वीरता के साथ युद्ध का नेतृत्व किया।
युद्ध के प्रमुख चरण:
1. पहला युद्ध (नरई और सारई के जंगलों में) - जीत
जब आसफ खान ने हमला किया, तो रानी ने अपनी सेना के साथ घने जंगलों में मोर्चा संभाला।
उन्होंने अपनी रणनीति और धनुर्धारी योद्धाओं की कुशलता से मुगलों को भारी नुकसान पहुंचाया।
इस युद्ध में मुगलों की हार हुई, और वे पीछे हटने को मजबूर हो गए।
2. दूसरा युद्ध (1564) - बलिदान
आसफ खान ने दोबारा बड़ी सेना के साथ हमला किया।
इस बार मुगलों के पास अधिक सैनिक और आधुनिक हथियार थे, जिससे गोंड सेना को मुश्किलें हुईं।
युद्ध के दौरान रानी घायल हो गईं, लेकिन हार मानने की बजाय उन्होंने आत्मसम्मान की रक्षा के लिए खुद को अपने ही खंजर से वीरगति दे दी।
यह युद्ध उनकी शौर्यगाथा को अमर कर गया।
अन्य संघर्ष:
रानी दुर्गावती ने अपने शासनकाल में कई बार बाहरी आक्रमणकारियों और विद्रोहियों का सामना किया।
उन्होंने अपने साम्राज्य की रक्षा के लिए कुशल कूटनीति और सैन्य रणनीतियों का उपयोग किया।
युद्ध और बलिदान
रानी दुर्गावती ने अपनी सेना संगठित की और मुगलों का डटकर सामना किया। उन्होंने नरई और सारई के जंगलों में दुश्मनों से लोहा लिया। जब उन्होंने देखा कि पराजय निकट है, तो वे पीछे हटने की बजाय वीरगति को अपनाने के लिए तैयार हो गईं। 24 जून 1564 को, उन्होंने आत्मबलिदान कर दिया लेकिन अपनी स्वतंत्रता नहीं छोड़ी।
विरासत :
रानी दुर्गावती की शौर्यगाथा भारतीय इतिहास में अमर है। उनकी वीरता, नेतृत्व और बलिदान आज भी हर किसी को प्रेरित करता है। मध्य प्रदेश में उनके सम्मान में कई स्मारक बनाए गए हैं, और उनके नाम पर विश्वविद्यालय तथा योजनाएँ चलाई जाती हैं।
उनकी कहानी साहस और स्वाभिमान की प्रतीक है, जो हर भारतीय को गौरवान्वित करती है।
निष्कर्ष:
रानी दुर्गावती का बलिदान भारतीय इतिहास में अमर है। उन्होंने अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए अंत तक संघर्ष किया और वीरांगना के रूप में इतिहास में अपना स्थान बनाया। उनका जीवन और युद्ध आज भी साहस और स्वाभिमान की मिसाल हैं।
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