हर्षवर्धन (पुष्यभूति वंश)

हर्ष के बारे में

हर्ष को भारत का अंतिम हिन्दू सम्राट कहा गया है, लेकिन वह न तो कट्टर हिन्दू था और न ही सारे देश का शासक ही । हर्षवर्धन ने शिलादित्य की उपाधि धारण की 

हर्ष का साम्राज्य काफी बड़ा था यह उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में विंध्य पर्वत तक तथा पूर्व में कम रूप से लेकर पश्चिम में सौराष्ट्र तक फैला हुआ था


चालुक्य शासक पुलकेशिन द्वितीय के एहोल अभिलेख से भी हर्ष के बारे में जानकारी मिलती है इस अभिलेख की रचना पुलकेशिन के दरबारी कवि रवि कीर्ति ने की थी इसमें हर्ष तथा पुलकेशिन के मध्य होने वाले युद्ध का वर्णन है हर्ष और पुलकेशिन -II के बीच नर्मदा नदी के तट पर युद्ध हुआ, जिसमें हर्ष की पराजय हुई ।

सोनीपत मोर में हर्ष का पूरा नाम हर्षवर्धन मिलता है।

बाणभट्ट हर्षवर्धन का दरबारी कवि था इसने हर्ष चरित्र एवं कादंबरी नामक पुस्तक लिखी 

हर्षवर्धन ने भी तीन पुस्तक लिखी रत्नावली प्रियदर्शिका तथा नागानंद 

वर्धन वंश का उदगम 

गुप्त वंश के पतन के बाद जिन नये राजवंशों का उद्भव हुआ, उनमें मैत्रक, मौखरि, पुष्यभूति, परवर्ती गुप्त और गौड़ प्रमुख हैं। इन राजवंशों में पुष्यभूति वंश के शासकों ने सबसे विशाल साम्राज्य स्थापित किया ।

वर्धन वंश के प्रमुख शासक एवं संस्थापक

पुष्यभूति वंश के संस्थापक पुष्यभूति था। इनकी राजधानी थानेश्वर (हरियाणा प्रांत के कुरुक्षेत्र जिले में स्थित वर्तमान थानेसर नामक स्थान) थी।


प्रभाकरवर्द्धन इस वंश की स्वतंत्रता का जन्मदाता था तथा प्रथम प्रभावशाली शासक था, जिसने परमभट्टारक और महाराजाधिराज जैसी सम्मानजनक उपाधियाँ धारण की। प्रभाकरवर्द्धन की पत्नी यशोमती से दो पुत्र राज्यवर्द्धन और हर्षवर्द्धन तथा एक कन्या राज्यश्री उत्पन्न हुई। राज्य श्री का विवाह कन्नौज के मौखरि राजा ग्रहवर्मा के साथ हुआ।

मालवा के शासक देवगुप्त ने ग्रहवर्मा की हत्या कर दी और राज्यश्री को बंदी बनाकर कारागार में डाल दिया ।


राज्यवर्द्धन ने देवगुप्त को मार डाला, परंतु देवगुप्त के मित्र गौड़ नरेश शशांक ने धोखा देकर राज्यवर्द्धन की हत्या कर दी।


नोट : शशांक शैव धर्म का अनुयायी था। इसने बोधिवृक्ष (बोधगया) को कटवा दिया। 

राज्यवर्द्धन की मृत्यु के बाद 606 ई० में 16 वर्ष की अवस्था में हर्षवर्द्धन थानेश्वर की गद्दी पर बैठा। हर्ष को शिलादित्य के नाम से भी जाना जाता था। इसने परमभट्टारक नरेश की उपाधि धारण की थी।


हर्ष ने शशांक को पराजित करके कन्नौज पर अधिकार कर लिया तथा उसे अपनी राजधानी बनाया। 


विदेशी यात्री

चीनी यात्री ह्वेनसांग हर्षवर्द्धन के शासनकाल में भारत आया।



ह्वेनसाँग को यात्रियों में राजकुमार, नीति का पंडित एवं वर्तमान शाक्यमुनि कहा जाता है। वह नालंदा विश्वविद्यालय में पढ़ने एवं बौद्ध ग्रंथ संग्रह करने के उद्देश्य से भारत आया था। हर्ष 641 ई० में अपने दूत चीन भेजे तथा 643 ई० एवं 645 ई० में दो चीनी दूत उसके दरबार में आए।


हर्ष ने कश्मीर के शासक से बुद्ध के दंत अवशेष बलपूर्वक प्राप्त किए।


धर्म 

हर्ष के पूर्वज भगवान शिव और सूर्य के अनन्य उपासक थे। प्रारंभ में हर्ष भी अपने कुलदेवता शिव का परम भक्त था। 

चीनी यात्री ह्वेनसाँग से मिलने के बाद उसने बौद्ध धर्म की महायान शाखा को राज्याश्रय प्रदान किया तथा वह पूर्ण बौद्ध बन गया ।


हर्ष के समय में नालंदा महाविहार महायान बौद्ध धर्म की शिक्षा का प्रधान केंद्र था।

हर्ष के समय में प्रयाग में प्रति पाँचवें वर्ष एक समारोह आयोजित किया जाता था जिसे महामोक्षपरिषद कहा जाता था। यह समारोह लगभग 75 दिन तक चलता था ऐसा कहा जाता है कि हर्ष इस परिषद में अपनी पूरी संपत्ति दान कर देता था

ह्वेनसाँग स्वयं 6ठे समारोह में सम्मिलित हुआ । 

हर्ष का दरबारी कवि

बाणभट्ट हर्ष के दरबारी कवि थे। उन्होंने हर्षचरित एवं कादम्बरी की रचना की।

हर्ष के द्वारा रचित पुस्तक

प्रियदर्शिका, रत्नावली तथा नागानन्द नामक तीन संस्कृत नाटक ग्रंथों की रचना हर्ष ने की थी। कहा जाता है कि धावक नामक कवि ने हर्ष से पुरस्कार लेकर उसके नाम से ये तीन नाटक लिख दिए ।



प्रमुख अधिकारियों के नाम

हर्ष के अधीनस्थ शासक महाराज अथवा महासामन्त कहे जाते थे।

हर्ष के मंत्रीपरिषद के मंत्री को सचिव या आमात्य कहा जाता था ।

प्रशासन की सुविधा के लिए हर्ष का साम्राज्य कई प्रांतों में विभाजित था। प्रांत को भूक्ति कह जाता था । प्रत्येक भूक्ति का शासक राजस्थानीय, उपरिक अथवा राष्ट्रीय कहलाता था।


नोट

हर्षचरित में प्रान्तीय शासक के लिए 'लोकपाल' शब्द आया है।  

भूक्ति का विभाजन जिलों में हुआ था। जिले की संज्ञा थी विषय जिसका प्रधान विषयपति होता था ।









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